आज फिर अपनी सी लग रही है ये राहे
इन्ही पर शायद है मेरे संघर्ष की बाहे ।
हर व्यक्तित्व पर अलग से चकित करने वाली
पुनरावृति के लिए चिंतन करवाती राहे।
मेरे मायने अलग तेरे मायने अलग होंगे ।
पर मंजिल की ओर सिर्फ यही जाती है राहे।
विमुख होने की प्रवृति हर व्यक्ति इनसे चाहे ।
फिर भी स्व्संचालन की मूर्त भी ये राहे ।
असफलता की गर्मी के मध्य अल्प
सफलता का पथ प्रेषित करती है राहे।
संघर्ष , संघ का अर्श पर परिणाम नही
सफलता की तत्परता का प्रारूप है यह राहे ।
दीर्घ अवधि तक यूँ ही उदासीन पड़ी
आज अपने ग्राही को पा खुश है राहे ।
अपनी गतिशीलता का स्पर्श देकर इन्हे
गुलज़ार आतिथ्य को आयोजित करती राहे ।
परम शून्य में संयोजित होने से पूर्व
परम लक्ष्य का पूर्वालोकन कराती राहे।
जो प्रकाश का साक्षात्कार होता परमलक्ष्य
की प्राप्ति पर उसे मुख्चित पर प्रकीर्ण करवाती राहे।
राहो से ही तादाम्य बना , अवयवों में घुल
व्यक्तित्व में अंगीकृत केर नई पहचान
के शिखर की प्राप्ति कराती राहे।
शैलेन्द्र ऋषि
सोमवार, अगस्त 10, 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें