सोमवार, मार्च 22, 2010

दीवार के पार

अक्सर तन्हाइयो में जज्बातों को उकेरने का दिल करता है
चमकती रातो में सितारों पर शहर बसाने का दिल करता है
गुस्सा , प्यार ,नफरत , बटवारा, बहुत हो चुका इस जहां में
किसी नए जहां के भावो पर लिखने को दिल करता है।
आशियाने उजड़ने की बात क्यों किसी क्यों बताये ?
ये तो रोज की बाते हो चली है
अब गैरों को नेस्तनाबूद करके भी खुशियों के गुलस्ते सजाने वालो
के संग घर बसाने को दिल करता है
महफूज करे कब तक अपने को दूसरों से ?
अब तो अपने घर को ही तोड़ने का दिल करता है
क्या करेंगे फरेब का चेहरा लिए ?
सच्चे गुनहगार की शक्ल दिखाने को दिल करता है
अगर ये चंद राहत की चीजे ही तय करती है आयाम जिन्दगी का
तो कसम खुदा तेरी इन चीजो को दुनिया में बिखेरने का दिल करता है
अगर यहाँ न बशर हो सका तो क्या चाँद पर गुजर हो जायेगा ?
आशियाने बदलकर पाकियत समेटने वालो को ख़त्म करने को दिल करता है
सियासत , शख्शियत , रिवाज को कब तक तब्बजो देते रहेंगे
अब हीर राँझा , रोमियो जूलियट ,लैला मझनु के हाथो सल्तनत
सौपने को दिल चाहता है।
क्यों जुदा हो रहे है हमराही अपने सायों से आज?
सभी मजहब के आदमियों को अपने आगोश में
समेटने वाली माटी बनने का दिल करता है
शैलेन्द्र ऋषि

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