सोमवार, मार्च 22, 2010

जूता

अज्ञात दैनिक यात्रा के बाद मैंने कुछ देर पहले ही उसे पृथक किया
मैं पलंग पर ठीक उसी तरह से था
जैसे वो पलंग के नीचे पड़ा था
सहसा मेरी नज़र उस पर पड़ी
रोष में घूरता वो मुझे प्रतीत हुआ
मेरे चेहरे और उसके शरीर पर
धूल का स्तर समान था
चेहरा तो साफ़ हो चुका था
पर उसे अगली यात्रा से पूर्व
ही साफ होना था
इसी रोष में , स्व की उपेछा में
स्थिर वो घूरे जा रहा था
अनेक सार्थक और निरर्थक
यात्राओ में मेरे संग
मुझे सुविधा और खुद का
क्षरण करते हुए परम परोपकारी
वो इतना अधिकार तो रखता ही है
विभिन्न अवसरों पर मैं उसकी
तो वो मेरी पहचान था
मेरे लक्ष्य को ही अपना लक्ष्य मान
सव्गंत्व्य से वह अंजान था
समय -समय पर अपने सुधार की मांग लिए
अभी भी वही समर्पण दिखलाता है
मैं अपना भार उस पर रख और वो
दूसरी पीढ़ी पर , मेरे जीवन से विदा हो जाता है।


शैलेन्द्र ऋषि

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें