अज्ञात दैनिक यात्रा के बाद मैंने कुछ देर पहले ही उसे पृथक किया
मैं पलंग पर ठीक उसी तरह से था
जैसे वो पलंग के नीचे पड़ा था
सहसा मेरी नज़र उस पर पड़ी
रोष में घूरता वो मुझे प्रतीत हुआ
मेरे चेहरे और उसके शरीर पर
धूल का स्तर समान था
चेहरा तो साफ़ हो चुका था
पर उसे अगली यात्रा से पूर्व
ही साफ होना था
इसी रोष में , स्व की उपेछा में
स्थिर वो घूरे जा रहा था
अनेक सार्थक और निरर्थक
यात्राओ में मेरे संग
मुझे सुविधा और खुद का
क्षरण करते हुए परम परोपकारी
वो इतना अधिकार तो रखता ही है
विभिन्न अवसरों पर मैं उसकी
तो वो मेरी पहचान था
मेरे लक्ष्य को ही अपना लक्ष्य मान
सव्गंत्व्य से वह अंजान था
समय -समय पर अपने सुधार की मांग लिए
अभी भी वही समर्पण दिखलाता है
मैं अपना भार उस पर रख और वो
दूसरी पीढ़ी पर , मेरे जीवन से विदा हो जाता है।
शैलेन्द्र ऋषि
सोमवार, मार्च 22, 2010
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें