बुधवार, सितंबर 15, 2010

कबाड़ीवाला

मेरी दस्तक है हर गलियों में 
हर रोज सुबह , दुपहर या शाम
समेटने को कुछ पुराणी चीजें
जो जुडी है उन्ही गलियों के रहने वालों से


मैं तौलता हूँ
किसी वृद्ध की छड़ी के लोहे  का हत्था
आराम कुर्सी के जंग लगे पाए
टूटी कमानी के चश्मे ,बागवानी के
धारहीन  औजार ,इस्पात के दरार युक्त
डिब्बे ,निष्प्रयोज्य  कागज के ढेर


नियत समय के बाद , लगभग हर घर से
मैं पाता हूँ इन्ही चीजों  को
बदलते परिदृश्य में , सुनता हूँ आज भी
हर बच्चे को नक़ल करते मेरी आवाज


हर वर्ग के लोगो की शंकित दृष्टी
आपतित होती है , मेरी तराजू पर
मुझे इंतज़ार है ,सामाजिक त्योहारों का.


मैं अनादी काल तक जीवित रहूँगा
संकलन करते लोगों का बदलाव


मैं खरीदता रहूँगा हर बार
केवल वही  पुराने सामान नहीं
उनके ईमान ,पुरानी सोच को
किसी न किसी रूप में
वहीँ उन्हीं की गलियों में
सुबह , दुपहर या शाम.




शैलेन्द्र ऋषि

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