बुधवार, जनवरी 26, 2011

फफूंदी

तुम बढे हो जिसे भूल
वो फिर आगे मिल जाएँगी
ये फफूंदीया है जिंदगी की
जहां लगी वहाँ सडायेंगी
है पुकारती लाखो चीखे जिसे सन्नाटो में
तुम उन्हें अपनी खुशियों में सुनोगे
उजाले भी अंधेरे के आगोश में होंगे
तुम कहाँ? कैसे? किसके सामने चीखोगे ?
न भीष्म मिलेंगे न द्रोंण ना भीम का साथ होगा  
फफूंदीया लग गयी दिलो में तो
हाथ मिलाने को हाथ ना होगा
ये चेहरा भी तुम्हारी पहचान नहीं होगा
बिलबिलाती दुश्बारियो में
अभी बढ़ के रोक लो फफूंदी
बढती तुम्हारे आँगन की क्यारियों में .

शैलेन्द्र ऋषि

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