कई दिनों तक कुहरे से द्वन्द करके
निकली ये धूप
कैसे बख्त बन जाती है उसकी
जिसके कीचड़ से भीगे किनारे वाली
शाल, टायरो की आग को तापती सरसों सी आँखे
इसी धूप का इंतजार करती है
इस दिलअफरोज धूप में कान से ऊपर
बार बार छूने से गन्दी हुई टोपी
भी सुस्ताने की बाँट जोहती है
परत दर परत सीने तक जाती मौत को
रोकने वाली उसकी जूट की कबा
आज सारे पहर रस्सी पर टंगने की आश लगाती है
उसने अभी तो देखा है इस धूप को
अपने दरवाजे में हो चले बड़े बड़े सूराखो से
पर दरवाजे तो थे ही नहीं
शाल से बने उसके शरीर के ठीक ऊपर
और उस भीगे किनारे तक बने घर की
खिडकियों में उसने पलक के बालो पे
धूप को पड़ते देखा
उसके घर का ठिकाना रोज बदलता है
पर हर बार किसी बड़ी बेमालिक हक वाली छत
के नीचे ही उसका ठिकाना होता
अपनी गुमनान जिंदगी में भी
वो क्रियाशील है सबसे ज्यादा
कभी कचड़े बिनना , कभी रिक्शे चलाना ,कभी ऐसी दूकान खोलना
जहां लोग समान खरीदते ही नहीं
यही फितरत में है उसके
कुछ दिनों से सुस्त पड़ी उसकी यही फितरत
शायद आज इस धूप से फिर लौटे
पर वो जो कल तक जीवित था
इस धूप को देख के बंद की अपनी आँखे जाने कब खोले ?
ये धूप सिर्फ उसकी थी , सिर्फ उसी की
पूरी ठंडी वो सिर्फ इसी के लिए तो लड़ा था
फिर इस ठण्ड से इतना ठंडा हो गया
की ये ठण्ड भी उसे गर्म लगती
फिर ये धूप तो उसे जला ही देती
तभी आज क्षण भर उसे छूने के बाद
वो फिर जा रही उसे साथ लिए
द्वन्द करने फिर कुहरे से .
शैलेन्द्र ऋषि
निकली ये धूप
कैसे बख्त बन जाती है उसकी
जिसके कीचड़ से भीगे किनारे वाली
शाल, टायरो की आग को तापती सरसों सी आँखे
इसी धूप का इंतजार करती है
इस दिलअफरोज धूप में कान से ऊपर
बार बार छूने से गन्दी हुई टोपी
भी सुस्ताने की बाँट जोहती है
परत दर परत सीने तक जाती मौत को
रोकने वाली उसकी जूट की कबा
आज सारे पहर रस्सी पर टंगने की आश लगाती है
उसने अभी तो देखा है इस धूप को
अपने दरवाजे में हो चले बड़े बड़े सूराखो से
पर दरवाजे तो थे ही नहीं
शाल से बने उसके शरीर के ठीक ऊपर
और उस भीगे किनारे तक बने घर की
खिडकियों में उसने पलक के बालो पे
धूप को पड़ते देखा
उसके घर का ठिकाना रोज बदलता है
पर हर बार किसी बड़ी बेमालिक हक वाली छत
के नीचे ही उसका ठिकाना होता
अपनी गुमनान जिंदगी में भी
वो क्रियाशील है सबसे ज्यादा
कभी कचड़े बिनना , कभी रिक्शे चलाना ,कभी ऐसी दूकान खोलना
जहां लोग समान खरीदते ही नहीं
यही फितरत में है उसके
कुछ दिनों से सुस्त पड़ी उसकी यही फितरत
शायद आज इस धूप से फिर लौटे
पर वो जो कल तक जीवित था
इस धूप को देख के बंद की अपनी आँखे जाने कब खोले ?
ये धूप सिर्फ उसकी थी , सिर्फ उसी की
पूरी ठंडी वो सिर्फ इसी के लिए तो लड़ा था
फिर इस ठण्ड से इतना ठंडा हो गया
की ये ठण्ड भी उसे गर्म लगती
फिर ये धूप तो उसे जला ही देती
तभी आज क्षण भर उसे छूने के बाद
वो फिर जा रही उसे साथ लिए
द्वन्द करने फिर कुहरे से .
शैलेन्द्र ऋषि