तुम जर्रे को पहचानो जर्रा तुमको पहचाने
शायद मंजिल की पहचान हो जाए
यूँ ही मदमस्त हवाओ के साथ बढ़ते चलो
शायद नए इतिहास का दीदार हो जाये.
शैलेन्द्र ऋषि
शुक्रवार, अप्रैल 16, 2010
हालात
आधी सल्तनत की लौ अभी बाकी थी
लो हम फिर काबिज हो गए तुम्हारे अधिकारों पर
जिरह की खिड़कियाँ फट फटा रही है
ये तुम सोचो की हवा आ रही है या जा रही है
जज्बे के पुलिंदे बनाकर कब तक मौज करोगे
एक भूखी रात ही क़यामत होगी आशियाने पर
जिक्र करते हो जिनका दिल -ए- करीब में
वो भी शराफत छोड़कर हैवान हो जायेंगे
बस अपनी रूह को यूँही भिगो कर रख
दस्तूर भी सिमट जायेंगे फिजाओं के पैमाने पर
मजहब की दीवारों की सिमटी परछाई है तुम पर
ये सोच कर कब तक सजदा करते रहोगे
एड़ियाँ घूरती है घुटनों को चिलचिलाती धूप में
जब लाश का पता लिख जाता है कोई मैखाने पर.
शैलेन्द्र ऋषि
अकेला आदमी
अकेला आदमी , यूँ ही कही बंद
तो कभी निर्धारित असीमित दूरियों पर
अकेला घूमता है
अकेला आदमी , एक साथ कई यात्राये करता है
विचारो के वाहन पर सवार
कभी थोड़ी तो कभी एक लम्बे
अंतराल पर बार बार उतरता है
वो सोचता है अपने आस पास की अनंत
उन बातो को जिन्होंने उसे उसके अपने अकेलेपन से दूर रखा .
शैलेन्द्र ऋषि
तो कभी निर्धारित असीमित दूरियों पर
अकेला घूमता है
अकेला आदमी , एक साथ कई यात्राये करता है
विचारो के वाहन पर सवार
कभी थोड़ी तो कभी एक लम्बे
अंतराल पर बार बार उतरता है
वो सोचता है अपने आस पास की अनंत
उन बातो को जिन्होंने उसे उसके अपने अकेलेपन से दूर रखा .
शैलेन्द्र ऋषि
अमिया
टिकोरे से बड़ी ,आम से छोटी
धूप में अपनी सुगंध बिखेरती अमिया
नवजातता को विखंडित कर
पूर्ण विकास से थोड़ी दूर अमिया
बच्चो में स्वाद की उत्कंठा की पूर्ति हेतु
उनके एक छोटे प्रहार की प्रतीक्षा में अमिया
कठोरता के भी अल्प विकास के दौर में
चीटियों को आमंत्रित करती अमिया
पक्षियों से सहज ही सहृदयता की भावना रख
हलके हवों के झोंको से पूरी मौज में झूमती अमिया
अबकी तुमको फिर तोड़ेंगे कोमलता को चुनने वाले
फिर भी हमेशा बागो में मुस्कराती अमिया .
कभी पूरी प्रकृति सिमटी दिखती बागों के इस प्रतिमानों में
सोचता हूँ जिन्दगी की डाल से टूटने के पहले
मैं भी क्यों न बन जाऊं अमिया ?
शैलेन्द्र ऋषि
धूप में अपनी सुगंध बिखेरती अमिया
नवजातता को विखंडित कर
पूर्ण विकास से थोड़ी दूर अमिया
बच्चो में स्वाद की उत्कंठा की पूर्ति हेतु
उनके एक छोटे प्रहार की प्रतीक्षा में अमिया
कठोरता के भी अल्प विकास के दौर में
चीटियों को आमंत्रित करती अमिया
पक्षियों से सहज ही सहृदयता की भावना रख
हलके हवों के झोंको से पूरी मौज में झूमती अमिया
अबकी तुमको फिर तोड़ेंगे कोमलता को चुनने वाले
फिर भी हमेशा बागो में मुस्कराती अमिया .
कभी पूरी प्रकृति सिमटी दिखती बागों के इस प्रतिमानों में
सोचता हूँ जिन्दगी की डाल से टूटने के पहले
मैं भी क्यों न बन जाऊं अमिया ?
शैलेन्द्र ऋषि
मैं उससे मिला
मैं उससे मिला ,अपने व्यस्ततम दिनों में
वह व्यक्ति था, सामाजिक परिभाषा से
वह पागल था, अपने कार्य व्यवहार से
वह दार्शनिक था , अपने स्वतंत्र विचारो से
और शायद वह देवदूत था
अपने कार्य के पीछे की निर्दोष भावना से
मैं उससे मिला जब मैं विचारो और भानु
की उष्णता से युक्त था
और वो अपने ही ब्रह्माण्ड में टहलता ,जीवन
के झंझटो से मुक्त था
उसने शायद जिंदगी में गालिया ही कमाई थी
तभी तो इन्हें दे वो सामान की मांग करता
मैं भी अन्य संभ्रांतो की भांति उसकी
बातो पर हँस लेता
मैं उससे मिला पर शायद मैं उससे नहीं मिला
क्यों की मैं उसके आतंरिक परिचय से अनभिज्ञ था
वह स्वयं की सत्ता , परिवार , समाज, पद ,प्रतिष्ठा ,
का परिचय दे भी कैसे ?
वो खुद की सृष्टि का विधाता और ग्रंथो का सर्वज्ञ था
मैं उससे मिला जब मेरी आँखे उससे मिली
अपने क्रियाकलापों से मानो शिकायत बता रहा हो
पर शायद हम जैसो की वैचारिक परतंत्रता पर
कभी जोर से ,कभी धीरे
कभी हँसते , कभी रोते , कभी पैर फेकते
तो कभी अपने मलिन कपडे को
मुंह में दबाये , अपना व्यंग जाता रहा हो .
मैं उससे मिला और मैंने उसे जाते देखा
वो अभी भी अपनी सृष्टि में मस्त था
पर हर ब्रह्माण्ड में शायद भूख अहम् है
इसलिए कमजोरी से पस्त था
उसके लिए हर चेहरे अजनबी है
तभी व्यवहार में उसके समानता थी
फिर भी सभी अजनबियों के खोखले
व्यवहार ,शब्द , प्रतिक्रिया ,को वो
गहराई से पहचानता है .
शैलेन्द्र ऋषि
वह व्यक्ति था, सामाजिक परिभाषा से
वह पागल था, अपने कार्य व्यवहार से
वह दार्शनिक था , अपने स्वतंत्र विचारो से
और शायद वह देवदूत था
अपने कार्य के पीछे की निर्दोष भावना से
मैं उससे मिला जब मैं विचारो और भानु
की उष्णता से युक्त था
और वो अपने ही ब्रह्माण्ड में टहलता ,जीवन
के झंझटो से मुक्त था
उसने शायद जिंदगी में गालिया ही कमाई थी
तभी तो इन्हें दे वो सामान की मांग करता
मैं भी अन्य संभ्रांतो की भांति उसकी
बातो पर हँस लेता
मैं उससे मिला पर शायद मैं उससे नहीं मिला
क्यों की मैं उसके आतंरिक परिचय से अनभिज्ञ था
वह स्वयं की सत्ता , परिवार , समाज, पद ,प्रतिष्ठा ,
का परिचय दे भी कैसे ?
वो खुद की सृष्टि का विधाता और ग्रंथो का सर्वज्ञ था
मैं उससे मिला जब मेरी आँखे उससे मिली
अपने क्रियाकलापों से मानो शिकायत बता रहा हो
पर शायद हम जैसो की वैचारिक परतंत्रता पर
कभी जोर से ,कभी धीरे
कभी हँसते , कभी रोते , कभी पैर फेकते
तो कभी अपने मलिन कपडे को
मुंह में दबाये , अपना व्यंग जाता रहा हो .
मैं उससे मिला और मैंने उसे जाते देखा
वो अभी भी अपनी सृष्टि में मस्त था
पर हर ब्रह्माण्ड में शायद भूख अहम् है
इसलिए कमजोरी से पस्त था
उसके लिए हर चेहरे अजनबी है
तभी व्यवहार में उसके समानता थी
फिर भी सभी अजनबियों के खोखले
व्यवहार ,शब्द , प्रतिक्रिया ,को वो
गहराई से पहचानता है .
शैलेन्द्र ऋषि
गुरुवार, अप्रैल 01, 2010
सांड की मृत्यु
सांड की मृत्यु हुई
जब शहर लोगो से गुलजार हुआ
वो जहां बैठता था छाँव में
खाने के बाद बहुत सा झूठन
शहर की गलियों में फेका गया
महंगे शीशे की खिड़की से
आज वहां भी दुकाने सज गयी है
रोजाना कुछ चंदे खाकी देवता को देकर
तंग गलियों में अपने समाज के
हर एक की हालत एक सी देख
वो देखता रहा धूप और उसकी
चमक को इधर- उधर
वो अब सांड कहाँ ?
वो बंधा है हर उन विरोधियो से
जो डंडे , हथकंडे लिए खड़े है
उसकी अपनी राहो में
कल ही तो उसके पैर लाचार हुए थे
शान-शौकत की सवारी चढ़ जाने से
पर वो तो पहले से ही लाचार बन गया था
शहर में बने निर्धारित पैमाने से
आज एक आँख है उसकी राहगीरों पर
तो दूसरी उसी चटक धूप पर
अब इंतजार है सिर्फ उन्ही जनों का
जो ज़मीन से उठा अनंत कालो तक उसे
विचरण करने दे उसे पानी पर ।
( सांड केवल जानवर ही नहीं बल्कि स्वतन्त्र विचारो का प्रतीक भी है ।)
शैलेन्द्र ऋषि
जब शहर लोगो से गुलजार हुआ
वो जहां बैठता था छाँव में
खाने के बाद बहुत सा झूठन
शहर की गलियों में फेका गया
महंगे शीशे की खिड़की से
आज वहां भी दुकाने सज गयी है
रोजाना कुछ चंदे खाकी देवता को देकर
तंग गलियों में अपने समाज के
हर एक की हालत एक सी देख
वो देखता रहा धूप और उसकी
चमक को इधर- उधर
वो अब सांड कहाँ ?
वो बंधा है हर उन विरोधियो से
जो डंडे , हथकंडे लिए खड़े है
उसकी अपनी राहो में
कल ही तो उसके पैर लाचार हुए थे
शान-शौकत की सवारी चढ़ जाने से
पर वो तो पहले से ही लाचार बन गया था
शहर में बने निर्धारित पैमाने से
आज एक आँख है उसकी राहगीरों पर
तो दूसरी उसी चटक धूप पर
अब इंतजार है सिर्फ उन्ही जनों का
जो ज़मीन से उठा अनंत कालो तक उसे
विचरण करने दे उसे पानी पर ।
( सांड केवल जानवर ही नहीं बल्कि स्वतन्त्र विचारो का प्रतीक भी है ।)
शैलेन्द्र ऋषि
मैं स्वस्थ्य हुआ
मैं बीमार था समाज मैं
क्यों की सहानुभूति का बढा
रक्तचाप था।
दोगलेपन से दूर रहने के
कारण कमजोरी थी
सच्चाई की तपन शरीर को
अधिक गर्म किये थी
कई वादों का प्रभाव
शुद्ध वात को प्रभावित करता था ।
पर आज मैं स्वस्थ्य हूँ
क्यों की मैं कसाई हूँ
सहानभूति का
सरकारी भावना की ताकत है
वकीलों और आधुनिक पत्रकारों की
शीतलता समेटे हूँ
और सभी वादों को छोड़
उदरवाद का प्रहरी हूँ ।
शैलेन्द्र ऋषि
क्यों की सहानुभूति का बढा
रक्तचाप था।
दोगलेपन से दूर रहने के
कारण कमजोरी थी
सच्चाई की तपन शरीर को
अधिक गर्म किये थी
कई वादों का प्रभाव
शुद्ध वात को प्रभावित करता था ।
पर आज मैं स्वस्थ्य हूँ
क्यों की मैं कसाई हूँ
सहानभूति का
सरकारी भावना की ताकत है
वकीलों और आधुनिक पत्रकारों की
शीतलता समेटे हूँ
और सभी वादों को छोड़
उदरवाद का प्रहरी हूँ ।
शैलेन्द्र ऋषि
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