गुरुवार, अप्रैल 01, 2010

सांड की मृत्यु

सांड की मृत्यु हुई
जब शहर लोगो से गुलजार हुआ
वो जहां बैठता था छाँव में
खाने के बाद बहुत सा झूठन
शहर की गलियों में फेका गया
महंगे शीशे की खिड़की से
आज वहां भी दुकाने सज गयी है
रोजाना कुछ चंदे खाकी देवता को देकर
तंग गलियों में अपने समाज के
हर एक की हालत एक सी देख
वो देखता रहा धूप और उसकी
चमक को इधर- उधर
वो अब सांड कहाँ ?
वो बंधा है हर उन विरोधियो से
जो डंडे , हथकंडे लिए खड़े है
उसकी अपनी राहो में
कल ही तो उसके पैर लाचार हुए थे
शान-शौकत की सवारी चढ़ जाने से
पर वो तो पहले से ही लाचार बन गया था
शहर में बने निर्धारित पैमाने से
आज एक आँख है उसकी राहगीरों पर
तो दूसरी उसी चटक धूप पर
अब इंतजार है सिर्फ उन्ही जनों का
जो ज़मीन से उठा अनंत कालो तक उसे
विचरण करने दे उसे पानी पर ।

( सांड केवल जानवर ही नहीं बल्कि स्वतन्त्र विचारो का प्रतीक भी है ।)

शैलेन्द्र ऋषि

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें