शुक्रवार, अप्रैल 16, 2010

अमिया

 टिकोरे से बड़ी ,आम से छोटी
 धूप में अपनी सुगंध बिखेरती अमिया
 नवजातता को विखंडित कर
पूर्ण विकास से थोड़ी दूर अमिया
बच्चो में स्वाद की उत्कंठा की पूर्ति हेतु
उनके एक छोटे प्रहार की प्रतीक्षा में अमिया
कठोरता के भी अल्प विकास के दौर में
चीटियों को आमंत्रित करती अमिया
पक्षियों से सहज ही सहृदयता की भावना रख
हलके हवों के झोंको से पूरी मौज में झूमती अमिया
अबकी तुमको फिर तोड़ेंगे कोमलता को चुनने वाले
फिर भी हमेशा बागो में मुस्कराती अमिया .
कभी पूरी प्रकृति  सिमटी दिखती बागों के इस प्रतिमानों में
सोचता हूँ जिन्दगी की डाल से टूटने के पहले
मैं भी क्यों न बन जाऊं अमिया ?

शैलेन्द्र ऋषि

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