शुक्रवार, अप्रैल 16, 2010

हालात

आधी सल्तनत की लौ अभी बाकी थी
लो हम फिर काबिज हो गए तुम्हारे अधिकारों पर
जिरह की खिड़कियाँ फट फटा रही है
ये तुम सोचो की हवा आ रही है या जा रही है
जज्बे के पुलिंदे बनाकर कब तक मौज करोगे
एक भूखी रात ही क़यामत होगी आशियाने पर
जिक्र करते हो जिनका दिल -ए- करीब में
वो भी शराफत छोड़कर हैवान हो जायेंगे
बस अपनी रूह को यूँही भिगो कर रख
दस्तूर भी सिमट जायेंगे फिजाओं के पैमाने पर
मजहब की दीवारों की सिमटी परछाई है तुम पर
ये सोच कर कब तक सजदा करते रहोगे
एड़ियाँ घूरती है घुटनों को चिलचिलाती धूप में
जब लाश का पता लिख जाता है कोई मैखाने पर.

शैलेन्द्र ऋषि 

1 टिप्पणी: