आधी सल्तनत की लौ अभी बाकी थी
लो हम फिर काबिज हो गए तुम्हारे अधिकारों पर
जिरह की खिड़कियाँ फट फटा रही है
ये तुम सोचो की हवा आ रही है या जा रही है
जज्बे के पुलिंदे बनाकर कब तक मौज करोगे
एक भूखी रात ही क़यामत होगी आशियाने पर
जिक्र करते हो जिनका दिल -ए- करीब में
वो भी शराफत छोड़कर हैवान हो जायेंगे
बस अपनी रूह को यूँही भिगो कर रख
दस्तूर भी सिमट जायेंगे फिजाओं के पैमाने पर
मजहब की दीवारों की सिमटी परछाई है तुम पर
ये सोच कर कब तक सजदा करते रहोगे
एड़ियाँ घूरती है घुटनों को चिलचिलाती धूप में
जब लाश का पता लिख जाता है कोई मैखाने पर.
शैलेन्द्र ऋषि
wow....lacking words to appreciate your creation.
जवाब देंहटाएंVery good, relevant and touching...go ahead. AtB.
Ram